Thursday, December 30, 2010

तुम हिन्दू हो, तुम मुस्लमान हो
पर क्यों    इतने परेशां हो

अगर ये मंदिर है और ये मस्जिद
तो तुम्ही राम हो , तुम्ही रहमान हो

सुनो धर्म के ठेकेदारों
जरिया हो, ना अल्लाह हो ना भगवान हो

खून-खून में फर्क हो करते
कितने नासमझ हो कितने नादान हो

गर पहचान सको तुम खुद को 
 तुम्ही वेद की वाणी, तुम अजान हो

 उठो जागो और जगाओ
 तुम गीता हो तुम्ही कुरान हो

Sunday, November 14, 2010

                             तुम होती तो....


अचानक इतने सालों बाद, फिर कुछ याद आ रहा है
सुनी मुंडेर पे कोई बुलबुल गा रहा है

आखिर इतने सालों बाद भी तो मै जिंदा था
ये और बात की , थोडा शर्मिंदा हूँ

फ़ोन पे वो लम्बी लम्बी बाते
दूरियों को कम करती, सर्द राते
तुम्हारा बार बार कहना " अच्छा और बताओ
नींद नहीं आ रही है थोडा और जगाओ

फिर वो बच्चों की तरह खिलखिलाकर  हंस  देना  
फिल्म साहित्य धर्मं राजनीती पर बेख़ौफ़ राय  देना
तुम इतना उत्तेजित हो जाती थी कहते-कहते
सोचता हूँ कोई इतना टूट जाता है सहते सहते

तुम्हारा वो बार-बार कहना, तुम नहीं होते तो क्या होता
फिर खुद ही पूछना, क्या होता ?

न कोई भेदभाव न सफलता-असफलता का दर
सर्द कोहरे से भरपूर रातों का वो मंजर

मेरे लिए मंदिरों में दुआएं मांगना,
अपनी पॉकेट  मनी   शेयर करना, अब क्या हो गया
मेरे लिए बाप से झगड़ा  करना, सब कहा खो गया

मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है, तुमने कहा था
याद है तुझे
कमरे का सारा सामान बिखरा पड़ा था

सच पूछो तो मैं तुम्हे देखना नहीं चाहता था
तुम्हे मालूम है मैं कितना रोता था


तुम्हारा ये कहना,
तुम्हे कोई और पसंद है तो ठीक है
कितना बेचैन कर देता था मुझे
शायद ये  पता था तुझे


तभी तो मेरा हाथ पकड़ कर कहती-मजाक कर रही हूँ
ऐसे मत देखो यार, डर रही हूँ

हर बार मैं अपनी भावुकता से हार जाता
उसके परांठे,  मेथी के साग पर निसार जाता

मगर तुम कितनी स्वार्थी थी खुदगर्ज़ थी
तुमने बताया ही नहीं
सब ख़त्म कर दिया था तुमने
बस रुलाया  ही नहीं

"अब कोई उम्मीद नहीं मुझे माफ़ कर देना"
तू नहीं जानती आज भी रोता हूँ याद करके
मार डाला था तुमने मुझे खुद को  मारके


आज इतने दिनों बाद फिर इसी मंच पर खड़ा हूँ
काश तू सामने बैठी होती बहुत डरा हूँ
बाहर  बारिश तेज हो रही  है
कन्फ्यूज़ हूँ, सच है या तू रो रही है
सोचता हूँ क्या सुनाऊ
तेरे संग बिताए लम्हों को गिनाऊ

या तेरी लिखी कुछ  लाइने  गुनगुनाऊ
डरता हूँ तू आ न जाये
मेरी गलतियों को गिनाये

क्योंकि वो अदा कहाँ से लाऊंगा
तेरे जैसा मैं क्या बोल पाऊंगा

Thursday, November 4, 2010

वजूद

क्या हो गया है तुम्हे ?
आजकल
हर बात पे चिढ जाते हो
ज़रा सा पूछ लो, एकदम से लड़ जाते हो

उसका कहना भी ठीक था
पर उपाय क्या है
इतनी हाय क्यों है

चल तो रही है ना, ज़िन्दगी
क्या संबंधों का रस भी निचोड़ लूं
तो क्या अपने सिद्धांतों  से मुंह मोड़ लूं
अकेले दुनिया में तुम्ही तो नहीं हो


इग्नोर करो
मैं कुछ कह रही हूँ
ज़रा गौर करो

ठीक है...
 तुम्हे ये सब पसंद नहीं
तुम्हारे कुछ उसूल है
यही तुम्हारी भूल है

हाँ .....जानती हूँ
तुम्हे चैन से सोना है

मगर, ये सोचो
भूखे पेट भी तो नींद नहीं आयेगी
अपनी नज़रों में तुम गिरना नहीं चाहते
इसके बगैर भी तो अपाहिज हो

आज खुद से बहुत शर्मिंदा हो तुम
मत भूलो, इसीलिए जिंदा हो तुम

यानि.....
बी प्रक्टिकल के नाम पर
मैं भी वही सब..........

मैंने कब कहा 
तुम भी वही सब करो
बस, इग्नोर करो
विस्थापित 

इस तरह ये क़स्बा भी डूब जायेगा
बसते उजड़ते रहने का ये क्रम,
इंसान कब तक निभाएगा

इस पतली सी सड़क के दोनों ओर बस्ती है
भीड़ है, महिलाएं है, बच्चे है, पुरुषों के झुण्ड है
फिर भी डूबने को कस्ती है

जगह-जगह  बिखरे
मलबों के ढेर लगे हुए है
इसी पर हमारी राजनीती के कुकुरमुत्ते, उगे हुए है

एक समय था नदियों के किनारे, सभ्यताए बसती थी
जिसकी धमनियों में,
जल कि धरा बहती थी

इसी घर को जोड़ने में क्या-क्या लगाया होगा
कितनी रातें जगी होंगी
कितने ही दिन ईंट, गारा, मिटटी उठाया होगा

कुछ छोटे-बड़े नेता आते है
चले जाते है
आश्वासनों का झुनझुना थमाते है
चले जाते है

कह जाते है
हम जरूर कुछ करेंगे, हालात पर नज़र रखेंगे
तब तक हम में से कितने बचेंगे

इनके वादों से क्या होना है
यहाँ भी रोना है वहाँ भी रोना है

Saturday, October 16, 2010

कुछ बाकी था


प्यार करते थे हम
बहुत ज्यादा
इसीलिए तो शादी कर ली
यानि 'लव मैरिज'


इतना आसान नहीं था
वो मुस्लिम थी मैं हिन्दू 
काफी अहम् था ये बिन्दू


फिर भी कभी लगा ही नहीं 
मजहब का भाव कंही जगा ही नहीं
मगर कुछ बाकी था


फैसले का दिन 
मैं पहले उठा 
पहली बार.... मैं पहले उठा  


लेकिन ऑफिस......?
शायद छुट्टी हो 
या  फिर कुछ ज्यादा ही  थकी हो


सोने दो
खुद ही उठेगी
लेकिन बहुत रूठेगी


''जाग रही हूँ यार
आज ऑफिस कहाँ जाना है
अच्छा हां....तुम्हारे लिए चाय भी तो बनाना है

वैसे भी आज छुट्टी है
भूल गए! 'सितम्बर थर्टी' है
तो.....?

तो क्या
आज इतिहास रचेगा
राम का वनवास हटेगा

तुम्हे लगता नहीं
चौदह साल ज्यादा हो गया
राम तो अभागा हो गया

वो तो शामिल ही नहीं
इस राज्याभिषेक में
वो तो दूदा है रोजी-रोटी के शोक में


बीच में तो  ठेकेदार है
असली राम कहाँ है
हेल्लो....चाय यहाँ है !


दरअसल राम और रहीम किनारे है
मानो  हिम्मत हारे  है
पर ऐसा है नहीं


जो दिखाया जा रहा है
वो झूठ है
दोनों एक ही माँ  के पूत है

तुम देखना
दोनों साथ खड़े नज़र आएंगे
दीवारें टूटेंगी, एक ही थाली में खायेंगे

जैसे हम
लेकिन ये तो चाय है
फिलहाल... इसी में एन्जॉय है
       मैं गांधी और वो


आखिर कब पीछा छोड़ेगा ये गाँधी ?

यही एक चरित्र था
नाटक में देने के लिए
राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गाँधी ?

क्यों आ जाती है आंधी
जब लेता हूँ इसका नाम

सब समझते है
कहीं जानबूझकर छेड़ते  तो नहीं  

उसने समझाया था
क्यों लेते हो इतना 'सीरियस'
एक चरित्र ही तो है
ना बोल दो  

लेकिन... लेकिन ये गाँधी ही क्यों ?
आज तो रफा-दफा करना ही होगा
या मैं या वो गाँधी !

कितना उखड जाता हूँ मैं
ये शब्द सुनते ही
उसे भी भला भूरा बोल देता हूँ

लेकिन ये क्या....?
वो तो जा रही है
इससे पहले की ये गाँधी
हमें भी बाँट दे
;स्क्रिप्ट' फाड़ देना ही ठीक है

आखिर दिया ही क्या है गांधी ने
सिर्फ अलगाव के !

(मैं गाँधी का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ . ये लाइने मेरी रचनात्मक आज़ादी के तहत लिखे गए है.)

Sunday, August 22, 2010

                 एक कहानी

बरसों पहले चाँद निगोड़ी, इस धरती पर रहती थी
था सूरज से लफडा उसका, मेरी दादी कहती थी

जब मंगल पर शापिंग करने, चाँद शाम को जाता था
पीछे-पीछे सिटी बजता, सूरज गाना गाता था

गाता था "वो लड़की बहुत याद आती है" 
बाल सुखाने चाँद बेचारी, जब-जब छत पर जाती थी

देख के उसको इलू-इलू, करता कई इशारें
दोनों शाम को डेटिंग,जाते दूर क्षितिज कनारे

कभी कराता टूर शुक्र पे, कभी बुद्ध की सैर
इक दिन नज़र पड़ी कुदरत, नहीं अब उनकी खैर

ख्वाब सजाएँ सपने देखे, किया था कितना वादा
ऐसी नज़र पड़ी जालिम की, मिल न सके वो ज्यादा

कुदरत ने तारों की अचानक, मीटिंग एक  बुलवाई
बोला सूरज बेटा जग में, हो रही बड़ी हंसाई

हम ऊंचे कुल के रजा है ज़रा नज़र दौड़ाओ
मरते हो उस नीच जाती की, लड़की को ठुकराओ

खाया-पिया बहोत हो चूका होश में अब आ जाओ
खानदान की इज्ज़त को, ऐसे तो न लुटवाओ

मिलकर  चाँद से  सूरज ने, सारी बात बताई
दोनों लिपट के इतना रोये, हाय दुहाई-दुहाई

कहा  चाँद ने जाओ सूरज, अब मुझसे न मिलाना
मैं प्रातः जब छुप जाऊं ,किरणों संग निकलना

और सुनो अब याद में मेरी, देखो तुम मत रोना
साड़ी रात जलूं मैं विरहन, तुम चैन से सोना

तब से दोनों अलग हुए जो, कभी नहीं मिल पाए
दास्ताँ सुन इनकी भींगी, पलकें किसे दिखाएँ