तुम होती तो....
अचानक इतने सालों बाद, फिर कुछ याद आ रहा है
सुनी मुंडेर पे कोई बुलबुल गा रहा है
आखिर इतने सालों बाद भी तो मै जिंदा था
ये और बात की , थोडा शर्मिंदा हूँ
फ़ोन पे वो लम्बी लम्बी बाते
दूरियों को कम करती, सर्द राते
तुम्हारा बार बार कहना " अच्छा और बताओ
नींद नहीं आ रही है थोडा और जगाओ
फिर वो बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस देना
फिल्म साहित्य धर्मं राजनीती पर बेख़ौफ़ राय देना
तुम इतना उत्तेजित हो जाती थी कहते-कहते
सोचता हूँ कोई इतना टूट जाता है सहते सहते
तुम्हारा वो बार-बार कहना, तुम नहीं होते तो क्या होता
फिर खुद ही पूछना, क्या होता ?
न कोई भेदभाव न सफलता-असफलता का दर
सर्द कोहरे से भरपूर रातों का वो मंजर
मेरे लिए मंदिरों में दुआएं मांगना,
अपनी पॉकेट मनी शेयर करना, अब क्या हो गया
मेरे लिए बाप से झगड़ा करना, सब कहा खो गया
मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है, तुमने कहा था
याद है तुझे
कमरे का सारा सामान बिखरा पड़ा था
सच पूछो तो मैं तुम्हे देखना नहीं चाहता था
तुम्हे मालूम है मैं कितना रोता था
तुम्हारा ये कहना,
तुम्हे कोई और पसंद है तो ठीक है
कितना बेचैन कर देता था मुझे
शायद ये पता था तुझे
तभी तो मेरा हाथ पकड़ कर कहती-मजाक कर रही हूँ
ऐसे मत देखो यार, डर रही हूँ
हर बार मैं अपनी भावुकता से हार जाता
उसके परांठे, मेथी के साग पर निसार जाता
मगर तुम कितनी स्वार्थी थी खुदगर्ज़ थी
तुमने बताया ही नहीं
सब ख़त्म कर दिया था तुमने
बस रुलाया ही नहीं
"अब कोई उम्मीद नहीं मुझे माफ़ कर देना"
तू नहीं जानती आज भी रोता हूँ याद करके
मार डाला था तुमने मुझे खुद को मारके
आज इतने दिनों बाद फिर इसी मंच पर खड़ा हूँ
काश तू सामने बैठी होती बहुत डरा हूँ
बाहर बारिश तेज हो रही है
कन्फ्यूज़ हूँ, सच है या तू रो रही है
सोचता हूँ क्या सुनाऊ
तेरे संग बिताए लम्हों को गिनाऊ
या तेरी लिखी कुछ लाइने गुनगुनाऊ
डरता हूँ तू आ न जाये
मेरी गलतियों को गिनाये
क्योंकि वो अदा कहाँ से लाऊंगा
तेरे जैसा मैं क्या बोल पाऊंगा
Sunday, November 14, 2010
Thursday, November 4, 2010
वजूद
क्या हो गया है तुम्हे ?
आजकल
हर बात पे चिढ जाते हो
ज़रा सा पूछ लो, एकदम से लड़ जाते हो
उसका कहना भी ठीक था
पर उपाय क्या है
इतनी हाय क्यों है
चल तो रही है ना, ज़िन्दगी
क्या संबंधों का रस भी निचोड़ लूं
तो क्या अपने सिद्धांतों से मुंह मोड़ लूं
अकेले दुनिया में तुम्ही तो नहीं हो
इग्नोर करो
मैं कुछ कह रही हूँ
ज़रा गौर करो
ठीक है...
तुम्हे ये सब पसंद नहीं
तुम्हारे कुछ उसूल है
यही तुम्हारी भूल है
हाँ .....जानती हूँ
तुम्हे चैन से सोना है
मगर, ये सोचो
भूखे पेट भी तो नींद नहीं आयेगी
अपनी नज़रों में तुम गिरना नहीं चाहते
इसके बगैर भी तो अपाहिज हो
आज खुद से बहुत शर्मिंदा हो तुम
मत भूलो, इसीलिए जिंदा हो तुम
यानि.....
बी प्रक्टिकल के नाम पर
मैं भी वही सब..........
मैंने कब कहा
तुम भी वही सब करो
बस, इग्नोर करो
विस्थापित
इस तरह ये क़स्बा भी डूब जायेगा
बसते उजड़ते रहने का ये क्रम,
इंसान कब तक निभाएगा
इस पतली सी सड़क के दोनों ओर बस्ती है
भीड़ है, महिलाएं है, बच्चे है, पुरुषों के झुण्ड है
फिर भी डूबने को कस्ती है
जगह-जगह बिखरे
मलबों के ढेर लगे हुए है
इसी पर हमारी राजनीती के कुकुरमुत्ते, उगे हुए है
एक समय था नदियों के किनारे, सभ्यताए बसती थी
जिसकी धमनियों में,
जल कि धरा बहती थी
इसी घर को जोड़ने में क्या-क्या लगाया होगा
कितनी रातें जगी होंगी
कितने ही दिन ईंट, गारा, मिटटी उठाया होगा
कुछ छोटे-बड़े नेता आते है
चले जाते है
आश्वासनों का झुनझुना थमाते है
चले जाते है
कह जाते है
हम जरूर कुछ करेंगे, हालात पर नज़र रखेंगे
तब तक हम में से कितने बचेंगे
इनके वादों से क्या होना है
यहाँ भी रोना है वहाँ भी रोना है
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