Saturday, October 16, 2010

कुछ बाकी था


प्यार करते थे हम
बहुत ज्यादा
इसीलिए तो शादी कर ली
यानि 'लव मैरिज'


इतना आसान नहीं था
वो मुस्लिम थी मैं हिन्दू 
काफी अहम् था ये बिन्दू


फिर भी कभी लगा ही नहीं 
मजहब का भाव कंही जगा ही नहीं
मगर कुछ बाकी था


फैसले का दिन 
मैं पहले उठा 
पहली बार.... मैं पहले उठा  


लेकिन ऑफिस......?
शायद छुट्टी हो 
या  फिर कुछ ज्यादा ही  थकी हो


सोने दो
खुद ही उठेगी
लेकिन बहुत रूठेगी


''जाग रही हूँ यार
आज ऑफिस कहाँ जाना है
अच्छा हां....तुम्हारे लिए चाय भी तो बनाना है

वैसे भी आज छुट्टी है
भूल गए! 'सितम्बर थर्टी' है
तो.....?

तो क्या
आज इतिहास रचेगा
राम का वनवास हटेगा

तुम्हे लगता नहीं
चौदह साल ज्यादा हो गया
राम तो अभागा हो गया

वो तो शामिल ही नहीं
इस राज्याभिषेक में
वो तो दूदा है रोजी-रोटी के शोक में


बीच में तो  ठेकेदार है
असली राम कहाँ है
हेल्लो....चाय यहाँ है !


दरअसल राम और रहीम किनारे है
मानो  हिम्मत हारे  है
पर ऐसा है नहीं


जो दिखाया जा रहा है
वो झूठ है
दोनों एक ही माँ  के पूत है

तुम देखना
दोनों साथ खड़े नज़र आएंगे
दीवारें टूटेंगी, एक ही थाली में खायेंगे

जैसे हम
लेकिन ये तो चाय है
फिलहाल... इसी में एन्जॉय है
       मैं गांधी और वो


आखिर कब पीछा छोड़ेगा ये गाँधी ?

यही एक चरित्र था
नाटक में देने के लिए
राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गाँधी ?

क्यों आ जाती है आंधी
जब लेता हूँ इसका नाम

सब समझते है
कहीं जानबूझकर छेड़ते  तो नहीं  

उसने समझाया था
क्यों लेते हो इतना 'सीरियस'
एक चरित्र ही तो है
ना बोल दो  

लेकिन... लेकिन ये गाँधी ही क्यों ?
आज तो रफा-दफा करना ही होगा
या मैं या वो गाँधी !

कितना उखड जाता हूँ मैं
ये शब्द सुनते ही
उसे भी भला भूरा बोल देता हूँ

लेकिन ये क्या....?
वो तो जा रही है
इससे पहले की ये गाँधी
हमें भी बाँट दे
;स्क्रिप्ट' फाड़ देना ही ठीक है

आखिर दिया ही क्या है गांधी ने
सिर्फ अलगाव के !

(मैं गाँधी का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ . ये लाइने मेरी रचनात्मक आज़ादी के तहत लिखे गए है.)