Saturday, December 2, 2017

Sunday, April 20, 2014

यूँ ही एक दिन ...: शहर   बनारसबतलाऊँक्या कैसे बीती , कुछ बीत गई कुछ ...

शहर   बनारस

बतलाऊँ क्या कैसे बीती , कुछ बीत गई कुछ गुज़र गई
उस दिशा से आयी हवा बता, मेरा शहर बनारस कैसा है

मैं  दूर  हूँ  तेरी नज़रों से ,  महरूम हूँ तेरी रहमत से
ऐ बादल मेरे दोस्त सुना , मेरा शहर बनारस कैसा है

हल्दिया से गुजरी हल्दी नदी, कह्ते है गंगा ही तो है
गर ऐसा  है  तो ऐ लहरें,  कुछ बोल  बनारस कैसा है

वो फक्कडपन वो बेफिक्री, वो किस्सों की जादूनगरी
 काशी  के  बाशिंदों,  लब खोल बनारस  कैसा  है

कैसी है काशी की गलियाँ, गलियों में गुम होती गलियाँ
अलहदा कचौड़ी और जलेबी, का स्वाद बनारस कैसा है

अब तो घाटों को भी गंगा, माँ ने नहला डाले होंगे
वो पैरों को छूती लहरों, का भाव बनारस कैसा है

वो श्मशान का मोक्ष-भाव, लहरों से खेलती छोटी नाव
जीवन दर्शन को सिखलाती, वो गाँव बनारस कैसा है

वो ममता के लाखो मंदिर, दर पे झुकते लोगों के सिर
सुख और सुकून की ठंडी-मीठी, छाँव बनारस कैसा है

जो मज़ा यहाँ की गलियों में,घाटों की रंगरलियों में
पूछो जो भटके गलियों में, कि मज़ा बनारस कैसा है

बिस्मिल्लाह जी की शहनाई, छन्नू जी का अंदाज़-ए-बयां
गुदई महाराज धिन-धिन-धिन ना, की थाप बनारस कैसा है

वो नुक्कड़ और दुकानों पे, होती चर्चा और परिचर्चा
कवि लेखक और नेताओं का, जमाव बनारस कैसा है

कजरी,सोहर,फगुआ गाना,रतजगा पे जलेबी खाना
सावन के मेले के ठेलों, की शान बनारस कैसा है

भरतमिलाप नाटीइमली की, रामलीला रामनगर वाली
वो जश्न वो लोगों का हुजूम, वो रंग बनारस कैसा है

डी.एल.डब्ल्यू. का रावण मेला, घाटों पे दीपों की बेला
छठ का उत्सव हो या खिचड़ी का, स्नान बनारस कैसा है

हो धर्म अलग हो जात अलग, सब लोगों के जज्बात अलग
तेरी होली मेरी ईदी , सद्भाव बनारस कैसा है

जिन्हें भूल गया, जो भूल गया, बंदा माफ़ी के काबिल है
कम शब्दों में कैसे लिखूं, सब भाव बनारस कैसा है

होता कोई जो शहर, तो अब तक भूल गया होता शायद

अंदाज़ है ये तो जीने का, मेरी जान बनारस कैसा है

Tuesday, August 20, 2013

विकल्पहीनता



कोई और विकल्प 

हो तो  

बताओ ...

नहीं ना !

मेरी मानो

हौंसलें समेटो

रास्ता जो भी हो 

स्वीकार करो 

सपनों को साकार करो

Sunday, August 11, 2013

शहर सपनों का...
 
मासूम
सपने देखने वाली आँखें
वो आँखें
जो सपने देखने के लिए बनी थी
सोने के लिए नहीं
इन्हें क्या मालूम ?
कि
यह शहर
जो हर पल नए-नए
सपनों की आमद से गुलज़ार है
इसके नीचे न जाने
कितने सपने दफ्न है
कितनी लाशें सड़ रही है
ख्वाहिशों की.....
इस शहर की
निर्मम भीड़ में
सपने
कब और कैसे खो जाते है ?
इसकी फरियाद कौन करेगा ?
कहाँ होगी इसकी सुनवाई ?
यह सवाल
बार-बार चौंकाता है
यह ख़याल बार-बार आता  है
और वो
अपनी मुट्ठियाँ बंद कर लेता है
इस डर से
कि सपने उड़ न जाये
मानो
सपने न होकर
जुगनू हो ..........

Monday, July 8, 2013

यूँ ही .................


कुछ चीज़ें 
एक वक़्त  के बाद 
व्यर्थता के ढेर में 
तब्दील हो जाती है 
जैसे ...........
बुढ़ापा 

Tuesday, January 4, 2011

कहाँ से लाऊँ उसे, जिसे अच्छा कहते है सब

मुझे तो बच्चा, कहते है सब

तुम ज़हीन हो, सब तुम्हे सुनते है

मुझे ! अकाल का कच्चा कहते है सब