Thursday, November 4, 2010

विस्थापित 

इस तरह ये क़स्बा भी डूब जायेगा
बसते उजड़ते रहने का ये क्रम,
इंसान कब तक निभाएगा

इस पतली सी सड़क के दोनों ओर बस्ती है
भीड़ है, महिलाएं है, बच्चे है, पुरुषों के झुण्ड है
फिर भी डूबने को कस्ती है

जगह-जगह  बिखरे
मलबों के ढेर लगे हुए है
इसी पर हमारी राजनीती के कुकुरमुत्ते, उगे हुए है

एक समय था नदियों के किनारे, सभ्यताए बसती थी
जिसकी धमनियों में,
जल कि धरा बहती थी

इसी घर को जोड़ने में क्या-क्या लगाया होगा
कितनी रातें जगी होंगी
कितने ही दिन ईंट, गारा, मिटटी उठाया होगा

कुछ छोटे-बड़े नेता आते है
चले जाते है
आश्वासनों का झुनझुना थमाते है
चले जाते है

कह जाते है
हम जरूर कुछ करेंगे, हालात पर नज़र रखेंगे
तब तक हम में से कितने बचेंगे

इनके वादों से क्या होना है
यहाँ भी रोना है वहाँ भी रोना है

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