Sunday, August 11, 2013

शहर सपनों का...
 
मासूम
सपने देखने वाली आँखें
वो आँखें
जो सपने देखने के लिए बनी थी
सोने के लिए नहीं
इन्हें क्या मालूम ?
कि
यह शहर
जो हर पल नए-नए
सपनों की आमद से गुलज़ार है
इसके नीचे न जाने
कितने सपने दफ्न है
कितनी लाशें सड़ रही है
ख्वाहिशों की.....
इस शहर की
निर्मम भीड़ में
सपने
कब और कैसे खो जाते है ?
इसकी फरियाद कौन करेगा ?
कहाँ होगी इसकी सुनवाई ?
यह सवाल
बार-बार चौंकाता है
यह ख़याल बार-बार आता  है
और वो
अपनी मुट्ठियाँ बंद कर लेता है
इस डर से
कि सपने उड़ न जाये
मानो
सपने न होकर
जुगनू हो ..........

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